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शीशा हूँ —निर्मला सिंह गौर की कविता

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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शीशा हूँ मुश्तकिल हूँ मगर
बेज़ुबान हूँ
फिर भी तुम्हारी असलियत
बतला ही देता हूँ
कोने में खड़ा रहता हूँ
चुपचाप उम्र भर
पर टूटता हूँ तो बहुत आवाज़ करता हूँ |
ये मेरी शक्सियत भले ही
बेनक़ाब हो
पर आपकी महफूज़
मै रखता हूँ आबरू
हर घर में मुझे रखते हैं
इस वास्ते सभी
एक मै ही कराता हूँ
हकीकत  से रूबरू
मै झूठ बोल कर के
खुशामद नहीं करता
सच मुह पे चला आता है
कोशिश नहीं करता
मुस्कान में शरीक़ तो हो जाता हूँ फ़ौरन
अश्कों को सोख लेने की
ज़ुर्रत नहीं करता|
दिल टूटते हैं लोगों के
फिर जुड़ भी जाते हैं
रख देता है कोई तो
मरहम भी ज़ख्म पर
मुझ को तो ज़िन्दगी से
मोहब्बत है तब तलक़
जब तक न कोई चोट करे
मेरे ज़िस्म पर
मै दर्द तो ख़ामोश ही बरदाश्त करता हूँ
पर टूटता हूँ तो बहुत आवाज़ करता हूँ |

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