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ग़ज़ल ‘तुम यह न समझना कि’ (कांटेस्ट ) निर्मला सिंह गौर

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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दिखते नहीं हैं ज़ख्म मेरे, दुखते हैं लेकिन
यह क्यों समझ रहे हो कि घायल नहीं हूँ मै
बहते नहीं हैं अश्क मेरे, रहते हैं अंदर
तुम यह न समझना कि समुन्दर नहीं हूँ मै |
खुश्बू को बिखर जाने की होती ही है आदत
कितनी भी हवाएं न दें उड़ने की इजाज़त
मुझको डराये कितनी भी  दीवारों की सरहद
घबरा गया भले हूँ पर बुज़दिल नहीं हूँ मै,  तुम यह न समझना कि…

आया नहीं कभी मै किसी की निगाह में
पर काफ़िले के साथ था मंज़िल की राह में
मेरे बुज़ूद में न सही  कोई ख़ासियत
लेकिन किसी की राह का पत्थर नहीं हूँ मै, तुम यह न समझना कि….
मुझको भी  दोस्तों ने सराहा है  कई बार
और दुश्मनों तक ने मुझे चाहा है कई बार
क्या गम है अगर ताज़ नहीं है मेरे सर पर
पर ये नहीं किस्मत का सिकंदर नहीं हूँ मै, तुम यह न समझना कि….
मैंने नहीं की महफ़िलों में छाने की कोशिस
मुझको नहीं आती है अपने फन की नुमाइश
कह दो तो किनारे पे डूब करके दिखा दूँ
पर ये नहीं की तैरने काबिल नहीं हूँ मै,

पर यह नहीं की तैरने  काबिल नहीं हूँ मै ,

तुम यह न समझना कि समुन्दर नहीं हूँ मै |

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