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एक टुकड़ा बादलों का —निर्मला सिंह गौर की ग़ज़ल (कांटेस्ट )

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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एक टुकड़ा बादलों का आ गया छत पर मेरी
और उसके बाद तो बस नम ही नम मौसम रहा ,
जब चिरागों के तले देखा अँधेरा झांक कर
फिर रही कोई ख़ुशी बाक़ी न कोई ग़म रहा |
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ग़म किसी के भी हों, लगता है कि जैसे हो मेरे
दिल बहुत दिन तक नहीं रखता कभी शिकबे-गिले
और खुशियाँ जब भी आई हैं मेरी मेहमान बन
उनकी दस्तक से खुले हैं द्वार मुश्किल से मेरे |
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सच तो ये है मेरे दुनिया अलग हैं रास्ते
पर हथेली पर रखी है जान सबके वास्ते
जब मुझे दिखने लगीं दो सूरतें इन्सान की
फिर रहा कोई दोस्त मेरा ,ना कोई दुश्मन रहा |
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जब चिरागों के तले देखा अँधेरा झांक कर
फिर रही कोई ख़ुशी बाक़ी ,न कोई ग़म रहा |
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चाह है अब राह में मेरी नहीं कलियाँ बिछें
और मुझको फर्शे मखमल की हकीक़त न ठगे
पांव के छाले मुझे होंगे बहुत प्यारे अगर
बाद मेरे जो भी गुज़रे, उसको न काँटा चुभे |
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इस जहाँ की आंकने का सबका अपना ढंग है
या तो हैं कुछ लोग बौने या नज़र ही तंग है
ज़िन्दगी में खूब पाया और खोया भी बहुत
पर किया ना कोई जलसा, ना कभी मातम रहा |
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जब चिरागों के तले देखा अँधेरा झांक कर
फिर रही कोई ख़ुशी बाक़ी, न कोई ग़म रहा ||

निर्मला सिंह गौर

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