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संदेह क्यों कर …..निर्मला सिंह गौर

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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अर्चना की आरती में दीप की लौ हो अस्थिर

तो भला व्रत की सफलता पर करें संदेह क्यों कर|

.

ये हवाएं भी हैं शामिल

मंदिरों के प्रांगणों में

है शहर का शोर भी तो

ध्यान के गुमसुम क्षणों में

शीर्ष से जो गिर गया श्रद्धा सुमन हो कर अस्थिर

तो भला आसक्ति की निष्ठा पे हो संदेह क्यों कर|

.

मन विहग गतिशील, चंचल

भावनाओं की है हलचल

है अधर मुस्कान शोभित

रिस रहा है नयन से जल

पार्श्व से जो आ रहे हैं आर्तनादों के करुण स्वर

तो ऋचाओं की महत्ता पर करें संदेह क्यो कर |

.

पी रहा जनजन निरंतर

विवशताओं का हलाहल

है कहीं ‘कर्तव्य’ बोझिल

तो कहीं है ‘मोह’ दलदल

यदि प्रदूषित जल भरा हो पात्रमें गंगा जली के

तो भला गंगा की पावनता पे हो संदेह क्यों कर ||

………………………………निर्मला सिंह गौर

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