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बचपन की फागुनी बहार (परम्परा/रीति रिवाज़)कांटेस्ट —निर्मला सिंह गौर

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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आज बचपन की कुछ स्म्रतियां मानस पटल पर उभर आईं,लगभग ३५-४० वर्ष पहले हमारे गाँव की होली का आनन्द ही निराला होता था, मध्य प्रदेश के गुना जिले में स्थित रुठियाई कस्वा जो शहर से थोड़ा छोटा और गाँव से काफी बड़ा था,  प्राकृतिक सौन्दर्य से लावालव गाँव को एक स्वच्छ नदी विभक्त कर रही थी , जिसे आगरा – बॉम्बे हाईवे पर बना देश का सबसे बड़ा पुल जोड़ देता था |

मेरे पिताजी वहां के सम्मानित एवं सभ्रांत वाशिंदे थे, हम छोटे बड़े, कई भाई बहन थे,  जिसमे हमारी  विधवा बुआजी के भी चार बच्चे सब साथ ही रहते थे और सब साथ ही स्कूल जाते थे| जब घर में बहुत सारे जने हों तो त्यौहार का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है|   वहां फागुन अमावस्या के दिन( १५ दिन पहले )होली का डंडा गाड़ दिया जाता है, पूरे गाँव में नदी किनारे ऊंचाई पर  एक ही स्थान था, जहाँ हर वर्ष होली जलती थी, उस स्थान को लीप पोत कर, पूजा कर के होली का डंडा गाड़ देते थे , बस उसी दिन से बच्चों और युवाओं में उत्साह का संचार होने लगता था, होली पर लकड़ियाँ जमा करने में सब एक से बढ़ कर एक कीर्तिमान स्थापित करने लग जाते थे, रात में लड़के घर से टीम बना कर निकलते और किसी की टूटी चारपाई, कुर्सी, बल्ली और जो भी लकड़ी का सामान बाहर मिलता, उठा कर होली पर रख कर रोमांचित होते थे, तब ये परम्परा थी की होली पर  से कोई चीज वापस नही उठा सकता था,  तब लोगों में गज़ब की आस्था एवं सहन शीलता थी, जिसका सामान जाता वो मन मसोस कर खिसियानी  हंसी हंस कर रह जाता था, बच्चे पूरे १५ दिन होली को सजाने में लगा देते थे, हमारा परिवार ही ऐसा था जिसमे सरस्वती की कृपा थी सारे सदस्य पढ़े लिखे थे, गाँव के अमीर,गरीव और व्यव्साही लोग तक अपनी अर्जी लिखवाना हो, कहीं आवेदन करना हो या कोई और समस्या हो तो मेरे पिता के पास निवारण और सलाह मशविरा करने  के लिए आते थे, क्यों कि पिताजी को अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी का अच्छा ज्ञान था, हमारे घर में एक बड़ी दो नाली (लाइसंस)बंदूक और एक एयर गन भी थी तो गाँव में चोर डाकुओं के आतंक से लोग बचे रहते थे, चूँकि  पुलिस  चौकी में सिपाहियों के पास सिर्फ लाठियां  ही होतीं थी, और वो भी चोर डाकुओं का पीछा करने से डरते थे,इसलिए गाँव वालों को पिताजी की गाँव में उपस्थिति से सुरक्षा का अहसास होता था | गाँव की सीमा के बाद घना जंगल था जहाँ शेर चीते और अन्य खतरनाक जानवरों की भरमार थी ,हमारा घर उस सीमा के मुहाने पर था | मेरे पिताजी ने भी  कई बार जान की परवाह किये बगैर चोरों, डाकुओं और जंगली जानवरों से लोगों को बचाया था,  इस लिए सारा गाँव उन्हें बहुत सम्मान देता था,  मगर बच्चों में सबसे ज्यादा शरारती बच्चे हमारे घर से ही निकलते थे, पर गाँव के लोग उनका भी आदर करते थे, उन्हें नाम के साथ भैया और बबुआ लगा कर ही बात करते थे|

भैया भाभी,चाचा चाची सब होली के चार दिन पहले घर आ जाते थे, तब न तो छुट्टी न मिलने का बहाना था न रेल गाड़ियों में आरक्षण न मिलने का रोना था और न ही बच्चों की पढाई के लिए कोई इतना गंभीर होता था, जबकि तब भी वार्षिक परीक्षाएं होली के ठीक बाद से शुरू होतीं थी |

होली के चार दिन पहले से कनस्तर भर भर कर गुझिया,पपड़ी,लड्डू एवं मठरी खुरमे बनना शुरू हो जाते थे| माँ, चाची, बुआजी, दीदियाँ, भाभिया और हमारी महाराजिन काकी (खाना बनाने वाली)  सब घर का काम निबटा कर होली के गीत गुनगुनाते हुए पकवान बनाने बैठ जातीं थी,बीच बीच में उनकी हंसी ठिठोली भी चलती रहती थी, तब टी.वी,कम्प्यूटर तो था नही, मनोरंजन के यही  तरीके होते थे ,रसोई घर काफी बड़ा था उसमे ही माँ की कोई पुरानी धुली सिथेतिक साडी बिछा कर ,उस पर गुझिया पपड़ी बना बना कर रखी जातीं थी,जिनको बाद में तल कर डिब्बों में भर कर रखते थे, उस समय घर में ही चूल्हे पर ही दूध का मावा बनाया जाता था,जिसके भूनने की सुगंध वातावरण को महका देती थी   |

मेरे पिताजी  होली के दो दिन पहले से सब बच्चों की पीतल की बड़ी बड़ी पिचकारियां एक बॉक्स में से निकाल कर उनके वॉशर बदल देते थे उससे वो दूर तक रंग फेकतीं थीं |सब बच्चों की पिचकारीयों पर उनके नाम खुदे रहते थे |तब तक प्लास्टिक का अवतार नहीं हुआ था,लोटे बाल्टियाँ भी  पीतल,कांसे  और ताम्बे की होतीं थी |

घर में गुलाल बड़ो के लिए आता था,पर बड़े लोग रंग से गीली होली भी खेलते थे, भाभियों के लिए देवर और ननदें खुसुर फुसुर करके पक्के रंगों की पुड़ियाँ मंगवातीं थीं | फागुन के महिने में टेसू के पेड़ केसरिया रंग के  फूलों से लद जाते हैं तो  होली जलने वाले दिन हमारे घर के माली और  नौकर जंगल जा कर ढेर सारे टेसू के फूल तोड़ कर लाते थे, फिर उनको साफ करके एक लोहे के चार बाई चार फुट के और दो हांथ गहरे टब में डाल देते थे,पानी में रंग पूरा उतर जाये तो पहले टब को चारों कोनो से उठा कर उसके नीचे ईंटें रख देते थे फिर पानी और टेसू के फूल भर कर आग जला कर गर्म कर देते थे चूँकि मध्य प्रदेश में तब होली तक थोड़ी ठण्ड पड़ती थी तो सुबह हल्का गुनगुना रंग बच्चों की सेहत के लिए मुफ़ीद रहता था, रंग का सौन्दर्य देखने लायक होता था, पानी में डूबते सूरज की लालिमा लिए, खुशबूदार गहरा केसरिया रंग तैयार हो जाता था, माँ बतातीं थी की इस रंग से होली खेलने से कभी भी चर्म रोग और फोड़े फुंसी नहीं होते,ये उस समय  का अनुभूत चिकित्सा विज्ञान था |

सुबह चार बजे होली की पूजा होती थी,पुरुष,बच्चे एवं महिलाएं पूजा की थाली और गेहूं की बालियों से होली की आरती करतीं थी फिर होलिका दहन होता था |

सुबह ९ बजे घर में माँ  पूड़ी सब्जी बना देतीं थी सब लोग नाश्ता करके होली के लिए तैयार हो जाते थे,हम सब बच्चे पुराने कपड़े पहन लेते थे और अपनी अपनी पिचकारियाँ सम्हाल कर दोस्तों को भिगोने के नये नये  षड्यन्त्र रचने लगते थे, १० बजे से पुरे गाँव के गणमान्य लोग हमारे बंगले के बगीचे में एकत्र हो जाते थे, वहां पहले से ही माली काका  और एक दो घर के लड़के टेबिल डाल कर  ठंडाई और भंग के गिलासों के साथ पकवानों के थाल सजाकर रखते थे, होली खेलने वाले ज्यादातर लोग सफ़ेद कुरते पजामे में होते थे, पिताजी,चाचाजी और भाई साहब भी नये सफ़ेद कुरते पजामे पहन कर बाहर निकलते थे| फिर खुल कर होली खेली जाती थी, लोग एक दूसरे को उठा कर रंग के टब में डालते थे, और हुडदंग मचाते थे, हम सब बच्चे छत पर से ये नज़ारा देखते थे|

सब लोग पूरे साल में हुए आपसी मतभेद भूल कर मस्त होकर नाचते गाते और एक दूसरे से गले मिलते थे, फिर ठंडाई, भंग और गुझिया पकवान खा कर, पिताजी,चाचाजी और भैया लोगों को लेकर टोली दूसरों के घरों की तरफ़ चल देती थी|

एक बार बहुत मज़े दार घटना हुई, एक सज्जन बेचारे जल्दी में घर से निकले तो सफ़ेद पजामे की जगह पत्नी का सफ़ेद नया पेटीकोट पहन कर बाहर आ गये (दरसल सफ़ेद थान का कपड़ा देकर कुरता पजामा और पेटीकोट साथ सिल कर आये थे और तीनो एक साथ अलमारी में रखे थे)फिर क्या था लोगों को होली का  मतलब फलित हो गया, उनका खूब  मजाक बना, पर होली में कोई किसी बात का बुरा नहीं मानता,वो भी मस्त होकर होली खेलते रहे |मगर तब के लोगों में इतनी समझदारी थी कि होली के बाद दुवारा उस बात की चर्चा नहीं हुई |

घर की महिलायें घर की चार दिवारी के अंदर ही फाग खेलतीं थीं,घर के बाहर भले घरों की बहू बेटियां नहीं निकलती थीं | रंग पंचमी तक गाँव में होली की थोड़ी बहुत धूम रहती थी,और रंग पंचमी को होली खेल कर बच्चों की पिचकारियाँ उनसे लेली जातीं थी और साफ करके सालभर के लिए बक्से में बंद हो जातीं थी |

मुझे अपने बचपन की प्राकृति की गोद में,प्राकृतिक रंगों से खेली होली बहुत याद आती है, अब पर्यावरण के हनन के साथ , सारे ही पेड़ कट गए और कंकरीट की बस्तिया बस गईं तो न तो टेसू के फूल खिलते हैं और न ही बचपन सा खिला मन लिए कोई मिलता है| बचपन की उम्र पूरी की पूरी होली जैसी मदमस्त होती थी |आज जब  बचपन के अनुभव लिखने पर आई हूँ तो —–

बड़ी मुश्किल से मैंने अपनी यादों को संजोया है

हर इक लम्हा किसी मोती सा शब्दों में पिरोया है |

जो दिन थे तब वो थे रंगीन स्याही की लिखावट के

बड़े सुंदर थे उन पर चित्र बचपन की शरारत के|

शुरु के दस बरस तो खूब मिटटी में सने होंगे

कहीं पैरों से गीली रेत पर कुछ घर बने होंगे |

उछल कूदों में, झूलों में, नदी की मस्त लहरों में

वो कुदरत की छटा सुंदर, कहाँ मिलती है शहरों में |

जो आये  पर्व होली का,  बड़ा रोमांच होता था

ये उत्सब ज़िन्दगानी के सफ़े पर रंग भरता था|

कुतूहल से भरा हर दिन था और कुछ ख्वाब  पलते थे

यहाँ पर ज़िन्दगी के रोज़ ही कुछ रंग बदलते थे|

अठारह बीस वर्षों में कई बदलाव आये थे

किशोरी उम्र के रथ बालपन को छोड़ आये थे |

.

यहीं से इक सफ़र आगाज़ से अंजाम तक आया

न फिर फ़ुर्सत मिली इतनी कि मै, कुछ देर सुस्ताया |

कटे फिर, दिन, महिने, वर्ष फिर कुछ एक दशक गुज़रे

न फिर खुल कर के हंस पाया न मै छुप करके रो पाया ||

……………………………………………………………….निर्मला सिंह गौर

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