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भोर ने दी आगमन की सूचना कुछ इस तरह
पक्षियों की मधुर ध्वनि पायल के घुंगरू सी बजी
स्वप्न से जाग्रत अवस्था में पदार्पण हो गया जब
रवि की पहली रश्मि खिड़की की सलाखों पर पड़ी |
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फिर हुई मध्यम सी दस्तक,नित्य से था भिन्न स्वर
दूध वाला तो सदा भोंपू बजाता है प्रखर
द्वार जब खोला तो थी इक ‘सांवली लड़की’ खड़ी
नयन पनियल थे मगर मुस्कान थी मोती जड़ी |
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छींट के थे घाघरा चोली धुले सिकुडन भरे
नाप से ज़्यादा बड़े कंगन कलाई में पड़े
दूध की छोटी सी गगरी हाथ में पकड़े खड़ी
मैंने पूछा नाम तो शरमा के बोली ‘रावड़ी’|
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उसने मुस्काकर कहे कुछ शब्द ज्यों घुंघरू बजे
जैसे अधरों पर बड़े अनमोल आभूषण सजे
बापू गये हैं बजरिया तब ही न आये हम यहाँ
अम्मा तनि बीमार है, भैया गया है पढ़्नवा|
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थे अधर पुलकित नयन लज्जा से थे नीचे झुके
चाहती थी कुछ तो कहना, शब्द पर मुह पर रुके
दूध का बर्तन उड़ेला और इठला कर चली
लग रहा था बचपने के छोर पर जैसे खड़ी |
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दूसरे दिन दूध वाला आया पहले की तरह
कल नहीं आने की मैंने पूछ ही डाली बज़ह
बोला देने के लिए लेने गए थे समनवा
अब बिटेवा हो गयी स्यानी, पठई दें, गवनवा |
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गाँव के उस छोर पर खुशियों की रंगत छा गयी
गेरू चूना पुत गया, घर पर चमक सी आ गयी
लाल पीली पन्नियों की सुतलियाँ सब तन गयीं
साफ़ सुथरे चौक में भी चित्रकारी बन गयी |
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चार छै दिन लोक गीतों की लहर थी रात में
और ढोलक की सुरीली सी धमक थी साथ में
रात में थी धूम पर सुबहा में हलचल थम गयी
‘रावड़ी’ रो कर विदा होकर के अपने घर गयी |
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फिर हुआ मै भी प्रवासी चंद वर्षों के लिए
और जीवन के वही आयाम दोहराने लगे
एक सुन्दर संगनी अर्धांगिनी मेरी बनी
और दिन चर्या में परिवर्तन सुखद आने लगे |
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चंद वर्षों बाद मै लौटा पुन: उस गाँव में
कुछ नहीं बदला वहां उस आसमाँ की छांह में
पहले जैसे खेत हरियाले, वही गौयें धवल
पेड़ कुछ ऊँचे हुए शाखें हुई थोड़ी सबल |
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कुछ बरक्कत हो गयी थी लोगों से मालूम पड़ा
खुल गए थे मदरसे और सड़कों पे डामर चढ़ा
चंद पल बीते ही थे, वो दूध वाला आ गया
रिश्तेदारों से अधिक आत्मीयता दर्शा गया |
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मै हुआ थोड़ा अचंभित साथ एक बच्ची खड़ी
‘सांवली लड़की’ पे उसकी हूबहू सूरत पड़ी
मैंने पूछा बाल-बच्चे तो मजे में हैं यहाँ
बोला साहिब हम गरीबों की भला किस्मत कहाँ |
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प्रश्न वाचक द्रष्टि मेरी पढ़ के उसने ही कहा
काल ने बेवक्त मेरी बिटेवा को खा लिया
ये है बिटिया ‘रावड़ी’ की साथ मेरे आ गयी
इसकी माता प्रसव के पल मौत को अपना गयी |
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मेरी ऑंखें नम हुई पर कर नहीं मै कुछ सका
‘सांवली लड़की’ का चेहरा मेरी आँखों में जगा
बेबसी में स्वयं था मै, शब्द सब बेअर्थ थे
उसके कंधे पर रखा बस हाथ, ढाढस व्यर्थ थे |
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छोटी लड़की को उठा कर गोद में वो चल दिया
मेरे मानस पटल पर एक प्रश्न फिर दोहरा गया
‘सांवली लड़की’ दुबारा, क्या चहकती आएगी
अब गवनवा होयगा, यह सोच कर शर्मायगी|
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हे ! प्रभु इन अशिक्षित लोगों को कुछ सद्ज्ञान दो
खेलने पढ़ने की वय में अब न कन्या दान हो
खेलने पढ़ने की वय में अब न कन्या दान हो ||
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निर्मला सिंह गौर
(अक्षय तृतीया पर राजस्थान में हज़ारों मासूम बच्चों का विवाह कर दिया जाता है और प्रशासन ,कानून और समाज मूक दर्शक बना देखता रहता है )
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