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पतझड़ों की पीर सहलाने बहारें आ गयीं
बागवां के दिल को बहलाने बहारें आ गयीं ,
पा के खोना , खो के पाना ज़िंदगी का चक्र है
दर्द का अहसास झुठलाने बहारें आ गयीं |
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पक्षियों ने घोसलों की खूब मज़बूती बुनी
पेड़ ने नन्हें परिंदों की बहुत बातें सुनी
एक दिन पत्ते उन्हें छू कर जुदा होने लगे
पतझड़ी के वक़्त में ज़ज्बात को छूने लगे |
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देखते ही देखते सब पेड़ गंजे हो गये
धूप के भी गर्म तेबर के शिकंजे हो गये
हो गयी छाया नदारद ,लू से मुरझाया चमन
तेज़ सूरज पी गया जल ,ताप से झुलसा बदन |
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पर ये कुदरत अपनी बेरहमी पे शर्माने लगी
छा गए बादल, हवाओं में नमी आने लगी
क्या सुखद अचरज, नवांकुर फूट कर बाहर हुये
पेड़ के सूने बदन पर जैसे आभूषण सजे |
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आ गया सावन फुहारों की झड़ी लगने लगी
गोरी सजधज कर, गगन की सुर परी लगने लगी
वृक्ष लहराने लगे नवपात में भीगे खड़े
सब्ज शाखें हो गयीं पुलकित,जहाँ झूले पड़े |
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रंग,खुशबू और सुन्दरता का फिर जमघट लगा
सज़ गया सारा चमन,दुर्दिन का गम भी छंट गया
आसमां को रूप दिखलाने बहारें आ गयीं
दर्द का अहसास झुठलाने बहारें आ गयीं ||
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निर्मला सिंह गौर
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