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जब कोई किसी पर कहीं ज़ुल्म ढाता है,
मेरा ये अंतर मन क्यों टूट जाता है,
जब कोई फूलों को पैरों में बिछाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |
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माली चुन चुन कर फूल बेंच देता है,
कीमत मिल जाने पर खूब इतराता है,
दूसरी सुबह में चमन फिर फूल जाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |
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जिसके उगते ही जो पुलकित हो जाती है,
पक्षी चहकते हैं कलियाँ खिल जातीं हैं,
वो रवि जब धरती पर आग बरसाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है|
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जो दर्द सह कर वंश को चलाती है,
जो घर की खुशियों में जीवन लुटाती है,
उस कन्या जन्म पर घर आंसू बहाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |
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कुछ हंस के देते हैं कुछ हंस के लेते हैं,
कुछ लेने देने को इज्जत समझते हैं,
जब दहेज़ के लिए वर, वधू को जलाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |
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जिसके स्वागत में वो अँखियाँ बिछाती है ,
खुद भी संवरती है घर भी सजाती है,
वो पति जब पत्नी को आँखें दिखाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |
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लाल को निहार कर बलिहारी जाती थी,
उसको सीने से लगा थकन उतर जाती थी ,
वो बेटा, माता को ब्रद्धाश्रम लाता है
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |
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निर्मला सिंह गौर
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