भोर की प्रतीक्षा में ...
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ये भला बंजर धरा पर
पुष्प कैसे खिल गए हैं
भावना के स्वच्छ निर्झर
अनकहे ही बह चले हैं |
.
फिर किसी ने अक्षरों की
रूह को बहका दिया है
फिर किसी ने शब्द के
आकाश को महका दिया है
फिर हमारी कल्पना के
सुप्त स्वर जाग्रत हुए हैं
भावना के स्वच्छ निर्झर
अनकहे ही बह चले हैं |
.
फिर हमारी लेखनी
अभिव्यक्ति को आतुर हुई है
जैसे मरुथल के ह्रदय से
सृजन की सरिता बही है
फिर हमारी चेतना के
पंछियों के पर खुले हैं
भावना के स्वच्छ निर्झर
अनकहे ही बह चले हैं |
.
फिर हमारी निडरता ने
विजय पाई मुश्किलों पर
फिर अतिथि बन कर कई
तूफान ठहरे साहिलों पर
फिर हमारी नाव ने
मझधार से रिश्ते किये हैं
भावना के स्वच्छ निर्झर
अनकहे ही बह चले हैं |
……………………………निर्मल
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