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साया — निर्मलासिंह गौर

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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साये का क्या बुज़ूद है जब तब सिकुड़ गया
सुबह से हुई शाम तो मुझ से बिछुड़ गया |
.
जब भी सफर में साथ में शामिल हुए कुछ लोग
उस भीड़ में साया मेरा पैरों कुचल गया |
.
आंधी से तो लड़ता रहा वो मेरे साथ साथ
बरसात में न जाने कहाँ जा कर छुप गया|
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कोई तो बराबर का मेरा हमसफर बना
पर धूप ने तो साये का क़द ही बदल दिया |
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गर्दिश में कोई साथ नहीं देता दोस्तों
आई जो रात मुझको छोड़ कर के चल दिया |

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